बाबा तिलका मांझी चौक, जैनामोड़, बोकारो, झारखंड में स्थित एक महत्वपूर्ण स्थल है, जो स्वतंत्रता सेनानी बाबा तिलका मांझी को समर्पित है। यह चौक जैनामोड़ के मुख्य क्षेत्र में है, जो बोकारो जिले का एक प्रमुख व्यावसायिक और यातायात केंद्र है।
प्रमुख जानकारी:
नामकरण और महत्व:
चौक का नाम बाबा तिलका मांझी के सम्मान में रखा गया है, जो 18वीं सदी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह करने वाले पहले आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे।
तिलका मांझी (जन्म: 11 फरवरी 1750, शहादत: 13 जनवरी 1785) ने संथाल और पहाड़िया समुदायों को संगठित कर 1779 में हूल विद्रोह का नेतृत्व किया था। उन्होंने ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों, विशेष रूप से आदिवासियों की जमीन और जंगलों के शोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
प्रतिमा स्थापना:
जैनामोड़ चौक में बाबा तिलका मांझी की आदमकद प्रतिमा स्थापित करने की योजना 2020 में शुरू हुई थी। बेरमो विधायक अनूप सिंह ने अपने फंड से इसकी प्रक्रिया शुरू की, और 2023 तक मूर्ति निर्माण का कार्य पूरा होने की उम्मीद थी।
यह स्थल पहले दिशासूचक चौक के रूप में जाना जाता था, जिसे हटाकर तिलका मांझी के सम्मान में भव्य चौक बनाया गया।
सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व:
हर साल 11 फरवरी को तिलका मांझी की जयंती और 13 जनवरी को उनके शहादत दिवस पर इस चौक पर कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और आदिवासी संगठन माल्यार्पण, पूजा-अर्चना और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
2024 में, रांची से मधुपुर लौटते समय एक नेता ने इस चौक पर तिलका मांझी की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया, जो स्थानीय कार्यकर्ताओं द्वारा स्वागत के साथ हुआ।
यह चौक आदिवासी समुदाय, खासकर संथाल और पहाड़िया, के लिए गर्व का प्रतीक है, क्योंकि तिलका मांझी ने उनके अधिकारों और जमीन की रक्षा के लिए बलिदान दिया।
स्थान और यातायात:
जैनामोड़, बोकारो जिले में एक महत्वपूर्ण कस्बा है, जो राष्ट्रीय राजमार्ग के पास स्थित है। यह चौक जैनामोड़-फुसरो, पेटरवार, और चास रोड को जोड़ता है, जिससे यह क्षेत्रीय यातायात का केंद्र है।
आसपास के क्षेत्रों में आदिवासी समुदाय की बहुलता है, और इस चौक को बुढ़नगोड़ा सबस्टेशन के पास तिलका मांझी चौक के रूप में नामकरण की मांग भी उठी है।
आयोजन और गतिविधियां:
2025 में, झारखंड मुक्ति मोर्चा ने जैनामोड़ के तिलका मांझी चौक पर उनकी जयंती धूमधाम से मनाई। कार्यक्रम में माल्यार्पण, पारंपरिक पूजा, और वक्ताओं द्वारा उनके योगदानों पर चर्चा हुई।
यह चौक स्थानीय समुदाय के लिए एक सभा स्थल के रूप में भी काम करता है, जहां आदिवासी संस्कृति और स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को बढ़ावा दिया जाता है।
निष्कर्ष:
बाबा तिलका मांझी चौक, जैनामोड़, बोकारो, न केवल एक भौगोलिक स्थल है, बल्कि यह आदिवासी गौरव, स्वतंत्रता संग्राम, और सामाजिक एकता का प्रतीक है। यह स्थल तिलका मांझी के बलिदान को याद करने और भावी पीढ़ियों को उनके संघर्षों से प्रेरित करने का केंद्र है।
बाबा तिलका मांझी (जन्म: 11 फरवरी 1750, मृत्यु: 13 जनवरी 1785), जिन्हें तिलका मुर्मू के नाम से भी जाना जाता है, भारत के पहले आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे। वे संथाल समुदाय के एक महान नायक थे, जिन्होंने 18वीं सदी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया। उनकी जीवनी और संथाल समुदाय से उनका गहरा जुड़ाव भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और आदिवासी इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
बाबा तिलका मांझी की जीवनी
प्रारंभिक जीवन
जन्म और परिवार: तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी 1750 को झारखंड (तत्कालीन बिहार) के भागलपुर जिले के तिलकपुर गांव में एक संथाल आदिवासी परिवार में हुआ था। उनका असली नाम जवाहर मांझी था, लेकिन वे अपने विद्रोही स्वभाव और ब्रिटिशों के खिलाफ लड़ाई के कारण "तिलका" (अर्थात् तीर-कमान का निशानेबाज) के नाम से प्रसिद्ध हुए। कुछ स्रोतों में उन्हें "मुर्मू" उपनाम से भी जोड़ा जाता है, जो संथाल समुदाय में प्रचलित है।
पृष्ठभूमि: तिलका मांझी का जन्म उस समय हुआ जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल, बिहार और ओडिशा के क्षेत्रों में अपनी सत्ता मजबूत करनी शुरू की थी। आदिवासी समुदायों, विशेषकर संथाल और पहाड़िया, की जमीन और जंगलों पर अंग्रेजों का अतिक्रमण बढ़ रहा था।
विद्रोह का नेतृत्व
हूल विद्रोह (1779-1785):
तिलका मांझी ने ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों, जैसे भारी कर, जमीन छीनने, और आदिवासियों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने संथाल, पहाड़िया, और अन्य आदिवासी समुदायों को एकजुट किया।
1779 में, तिलका मांझी ने हूल विद्रोह (संथाल विद्रोह) की शुरुआत की। यह भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ पहला संगठित सशस्त्र विद्रोह था।
उन्होंने जंगलों को अपनी ताकत बनाया और छापेमारी (गुरिल्ला युद्ध) की रणनीति अपनाई। तीर-कमान और पारंपरिक हथियारों के साथ उन्होंने ब्रिटिश सेना और उनके सहयोगियों पर हमले किए।
प्रमुख घटना (1784):
1784 में तिलका मांझी ने भागलपुर में ब्रिटिश प्रशासक ऑगस्टस क्लीवलैंड की हत्या कर दी। क्लीवलैंड आदिवासियों पर अत्याचार और उनकी जमीन हड़पने के लिए कुख्यात था। तिलका ने पेड़ पर चढ़कर तीर से क्लीवलैंड को मार गिराया, जो उनके साहस और निशानेबाजी का प्रतीक है।
इस घटना ने ब्रिटिश प्रशासन को हिलाकर रख दिया और तिलका मांझी को आदिवासी समुदाय का नायक बना दिया।
शहादत
गिरफ्तारी और बलिदान:
ब्रिटिश सेना ने तिलका मांझी को पकड़ने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाया। 1785 में, विश्वासघात के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
ब्रिटिशों ने उन्हें क्रूर यातनाएं दीं और 13 जनवरी 1785 को भागलपुर में एक बरगद के पेड़ पर फांसी दे दी। उनकी शहादत ने आदिवासी समुदायों में स्वतंत्रता की भावना को और मजबूत किया।
प्रतीकात्मक महत्व:
तिलका मांझी की फांसी को ब्रिटिश शासन ने आदिवासियों को डराने के लिए सार्वजनिक किया, लेकिन यह उल्टा पड़ा। उनकी शहादत ने संथाल विद्रोह (1855-56) जैसे बाद के आदिवासी आंदोलनों को प्रेरित किया।
विरासत
तिलका मांझी को झारखंड और आदिवासी समुदाय में "बाबा" के रूप में सम्मानित किया जाता है। उनके नाम पर कई स्मारक, चौक, और संस्थान स्थापित किए गए हैं, जैसे बोकारो के जैनामोड़ में तिलका मांझी चौक।
उनकी जयंती (11 फरवरी) और शहादत दिवस (13 जनवरी) को झारखंड में उत्सव और स्मृति कार्यक्रमों के साथ मनाया जाता है।
तिलका मांझी ने आदिवासी अस्मिता, जमीन और जंगल के अधिकारों की रक्षा के लिए जो बलिदान दिया, वह आज भी प्रासंगिक है।
संथाल समुदाय से जुड़ाव
तिलका मांझी का संथाल समुदाय से गहरा नाता था, और उनकी लड़ाई इस समुदाय के अधिकारों और सम्मान के लिए थी। संथाल समुदाय के साथ उनके संबंध को निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है:
संथाल समुदाय का परिचय:
संथाल भारत का एक प्रमुख आदिवासी समुदाय है, जो मुख्य रूप से झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, बिहार, और असम में निवास करता है।
संथाल लोग अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं, जैसे सोहराय और बाहा पर्व, और प्रकृति पूजा के लिए जाने जाते हैं।
18वीं सदी में, संथाल समुदाय कृषि और जंगल पर निर्भर था, लेकिन ब्रिटिश नीतियों ने उनकी जमीन और आजीविका को खतरे में डाल दिया।
तिलका मांझी और संथाल:
तिलका मांझी स्वयं संथाल समुदाय से थे और उनकी लड़ाई संथालों की जमीन, जंगल, और स्वायत्तता की रक्षा के लिए थी।
उन्होंने संथाल और पहाड़िया समुदायों को एकजुट कर ब्रिटिश जमींदारों और अधिकारियों के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया। उनकी रणनीति में संथालों की पारंपरिक युद्धकला, जैसे तीर-कमान और जंगल की जानकारी, का उपयोग शामिल था।
तिलका मांझी ने संथाल समुदाय को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उन्हें सामाजिक-आर्थिक शोषण के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया।
संथाल विद्रोह पर प्रभाव:
तिलका मांझी की शहादत ने संथाल समुदाय में स्वतंत्रता की चेतना को जीवित रखा। 1855-56 में सिद्धू-कान्हू के नेतृत्व में हुए संथाल हूल (विद्रोह) को तिलका मांझी की लड़ाई का प्रत्यक्ष परिणाम माना जाता है।
संथाल विद्रोह में भी तिलका मांझी की तरह गुरिल्ला युद्ध और सामुदायिक एकता की रणनीति अपनाई गई।
सांस्कृतिक प्रभाव:
संथाल समुदाय में तिलका मांझी को एक लोकनायक के रूप में पूजा जाता है। उनके गीत, कहानियां, और किंवदंतियां संथाल लोकसाहित्य का हिस्सा हैं।
संथाल पर्वों और आयोजनों में तिलका मांझी के बलिदान को याद किया जाता है, और उनकी मूर्तियां और स्मारक समुदाय के लिए गर्व का प्रतीक हैं।
निष्कर्ष
बाबा तिलका मांझी न केवल संथाल समुदाय के नायक थे, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले आदिवासी योद्धा थे। उनकी जीवनी साहस, बलिदान, और सामाजिक न्याय की कहानी है। संथाल समुदाय के लिए वे एक प्रेरणा स्रोत हैं, जिन्होंने जमीन, जंगल, और संस्कृति की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर किए। उनकी विरासत आज भी झारखंड और संथाल समुदाय में जीवित है, और तिलका मांझी चौक जैसे स्मारक उनके योगदान को अमर बनाते हैं।
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